¿Cuál es el nombre del poeta, en un enlace o texto, del poema hindú ‘Rann Nimantran’?

El nombre del poeta es Maithili Sharan Gupt, y el poema es el siguiente:

“घन और भस्म विमुक्त भानु- कृशानु-सम शोभित नये

अज्ञातवास समाप्त करके प्रकट पाण्डव हो गये,

होकर कुमतिवश कौरवों ने प्रबलता की भ्रान्ति से

रण के विना देना न चाहा राज्य उनको शान्ति से,

निज बल बढ़ाकर तब परस्पर विजय की आशा किये

वे लगे होने प्रकट प्रस्तुत युद्ध करने के लिए,

सब ओर अपनी ओर के राजा बुलाने को वहाँ

भेजे गये युगपक्ष से द्रुत दक्ष दूत जहाँ-तहाँ।

जाकर त्वरित श्रीकृष्ण को लेने इसी उपलक्ष्य में,

देने उन्हें रण का निमन्त्रण आप अपने पक्ष में,

आधार लेकर एक से सम्बन्ध के अधिकार का

दैवात् सुयोधन और अर्जुन संग पहुँचे द्वारका,

मध्याह्नभोग समाप्त कर सुखशयन में भगवान् थे

गम्भीर नीरव शान्त सुस्थिर श्याम सिन्धु समान थे,

ओढ़े मनोहर पीतपट वे दिव्य रूप निधान थे

प्रत्यूष-आतप-युक्त यमुना-हृद सदृश सुविधान थे।

यों लग रहे उनके निमीलित नेत्र-युग्म ललाम थे

भीतर मधुप मूँदे हुए ज्यों सुप्त सरसिज श्याम थे,

वह दिव्य सुषमा देखने से ज्ञात होता था यही

मानो पुरन्दर-चाप सुन्दर खींच लायी है मही।

ऐसे समय में शीघ्रता से पहुँच दुर्योधन वहाँ

वैकुण्ठ में बैठा सिरहाने, उच्च आसान था जहाँ,

कुछ ही क्षणों में पहुँच कर अर्जुन विना कुछ भी कहे

हरि के पदों की ओर निश्छल नम्रता से स्थित रहे।

कुछ देर में जब भक्तवत्सल देवकीनन्दन जगे

देख सन्मुख पार्थ को बोले वचन प्रियता-पगे,

भारत कुशल तो है? कहो क्यों आज भूल पड़े यहाँ?

जो कार्य मेरे योग्य हो प्रस्तुत सदा मैं हूँ यहाँ।

कहते हुए निज सेज से यों पूर्व तन के भाग से

उठ बैठ तकिए के सहारे देख कर अनुराग से,

सस्मित-अविस्मित पार्थ से निज वचन कहने के लिए

अविलम्ब उनकी ओर हरि ने नेत्रयुग प्रेरित किये।

तब देख उनकी ओर हँसकर कुछ विचित्र विनोद से

नत भाल पर सिर रख किरीटी ने कहा यों मोद से,

होते सुलभ सब भोग जिनसे भागते भवरोग हैं,

जिनपर तुम्हारी वह कृपा, सकुशल सदा हम-लोग हैं,

यह जन जनार्दन! स्वार्थवश ही आज आया है यहाँ

निज पक्ष में रण का निमन्त्रण मात्र लाया है यहाँ।

वह गर्व-उच्चस्थान सब, कुरुराज का यों हत हुआ

कुछ अप्रतिभ सा पहुँच, वह भी सामने उपकृत हुआ.

आया प्रथम गोविन्द मैं हूँ, आपके शुभ धाम में

अतएव मुझको दीजिए साहाय्य इस संग्राम में,

मैं और अर्जुन आपको दोनों सदा समान हैं

किन्तु पहले आये को मानते मतिमान् हैं।

हरि ने कहा- हे वीर! तुम बोलो सुवाक्य विवेक से

तुम और पाण्डव हो हमारे स्वजन दोनों एक-से,

है प्रथम आने की तुम्हारी बात तात यथार्थ ही

पर प्रथम दृग्गोचर हुए मुझको यहाँ पर पार्थ ही।

जो हो करूँगा युद्ध में सहयोग दोनों ओर मैं

पालन ​​करूँगा यह किसी विधि स्वकर्तव्य कठोर मैं,

दूँगा चमू नारायणी एक ओर सशस्त्र मैं

केवल अकेला ही रहूँगा एक ओर निरस्त्र मैं।

इस भाँति निज सहयोग के दो भाग मैंने है किये

चुन ले प्रथम ये पार्थ इनमें एक जो भी चाहिए,

विस्तृत चमू निज पक्ष में रण में लड़ेगी सब कहीं

पर युद्ध की तो बात क्या मैं शस्त्र भी लूँगा नहीं।

सुनकर वचन तब पर्थ ने स्वीकार माधव को किया

कुरुनाथ ने नारायणी सुविशाल सेना को लिया,

तब पार्थ से हँसकर वचन कहने लगे भगवान् यों

स्वीकृत मुझे तुमने किया है त्याग सैन्य महान् क्यों?

गम्भीर होकर पार्थ ने उनको यही उत्तर दिया

करना मुझे जो चाहिए था, है वही मैंने किया,

सेना रहे, मुझको जगत् भी तुम विना स्वीकृत नहीं,

श्रीकृष्ण रहते है जहाँ, सब सिद्धियाँ रहती वहीं। ”

– रण-निमन्त्रण

El es la persona.
Maithili Sharan Gupt

Gracias