¿Cuál es tu poema hindi favorito?

No puedo contar ninguno reciente, ya que no tengo mucho contacto con la literatura hindi en estos días. Sin embargo, recuerdo claramente la siguiente poesía titulada ” शक्ति और क्षमा de Rashtrakavi Ramdhari Singh Dinkar, de mis días en la escuela.

Rebosante de Veer Rasa, este poema exuda la importancia del valor. Siempre seguirá siendo uno de mis favoritos.

शक्ति और क्षमा

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ, कब हारा?

क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुये विनत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।

अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।

क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो।

तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति सिन्धु किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे।

उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से।

सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता ग्रहण की
बँधा मूढ़ बन्धन में।

सच पूछो, तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की।

सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।

रामधारी सिंह “दिनकर”

मत कहो आकाश में कोहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है!

Tales líneas fuertes en los días oscuros de Indian Emergency me enamoraron del trabajo de este espectacular poeta. Otra hermosa obra de él:
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
Cada palabra de su pluma te obliga a seguir leyendo con la esperanza de encontrar otra gema. Otro de mis favoritos es Ramdhari Singh Dinkar y sus líneas más desgarradoras siempre me han impactado.

कुंकुम? लेपूँ किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान।

समर शेष है यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा,
और नहीं तो तुझ पर पापिनि! महावज्र टूटेगा।

¡Y cuando estoy de un humor diferente, me encanta el juego de este profesor de inglés con bolígrafo!

मिट्टी का तन, मस्ती का मन, क्षण भर जीवन, मेरा परिचय!

इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!
ज़मीन है न बोलती न आसमान बोलता,
जहान देखकर मुझे नहीं जबान खोलता,
नहीं जगह कहीं जहाँ न अजनबी गिना गया,
कहाँ-कहाँ न फिर चुका दिमाग-दिल टटोलता,
कहाँ मनुष्य है कि जो उमीद छोड़कर जिया,

इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!

– बच्चन

Poemas … ¡elegir uno no le hará justicia … !

Este poema सीखो es uno de mis favoritos de todos los tiempos. Lo leí en la escuela y me gustó mucho. Nos dice cuánto podemos aprender de todo lo que nos rodea y cuán amable es la naturaleza amada.

सीखो – श्रीनाथ सिंह

फूलों से नित हँसना सीखो, भौंरों से नित गाना।
तरु की झुकी डालियों से नित, सीखो शीश झुकाना!

सीख हवा के झोकों से लो, हिलना, जगत हिलाना!
दूध और पानी से सीखो, मिलना और मिलाना!

सूरज की किरणों से सीखो, जगना और जगाना!
लता और पेड़ों से सीखो, सबको गले लगाना!

वर्षा की बूँदों से सीखो, सबसे प्रेम बढ़ाना!
मेहँदी से सीखो सब ही पर, अपना रंग चढ़ाना!

मछली से सीखो स्वदेश के लिए तड़पकर मरना!
पतझड़ के पेड़ों से सीखो, दुख में धीरज धरना!

पृथ्वी से सीखो प्राणी की सच्ची सेवा करना!
दीपक से सीखो, जितना हो सके अँधेरा हरना!

जलधारा से सीखो, आगे जीवन पथ पर बढ़ना!
और धुएँ से सीखो हरदम ऊँचे ही पर चढ़ना!

――――――― ―――――――――

¡Gracias por A2A!

🙂

escrito por nadi fizli:

सफ़र में धूप तो होगी, जो चल सको तो चलो …

सभी हैं भीड़ में, तुम भी निकल सको तो चलो!

किसी के वासते राहें कहाँ बदलती हैं …

तुम अपने आप को खुद ही बदल सको तो चलो!

यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता …

मुझे गिराके अगर तुम संभल सको तो चलो!

यही है जिंदगी, कुछ ख़्वाब चंद उम्मीदें …

इन्ही खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो!