चेतक की वीरता (Chetak Ki Veerta) – श्यामनारायण पाण्डेय (Shyamnarayan Pandey)
बकरों से बाघ लड़े¸
भिड़ गये सिंह मृग – छौनों से।
घोड़े गिर पड़े गिरे हाथी¸
पैदल बिछ गये बिछौनों से।।1 ।।
हाथी से हाथी जूझ पड़े¸
भिड़ गये सवार सवारों से।
घोड़ों पर घोड़े टूट पड़े¸
तलवार लड़ी तलवारों से।।2 ।।
हय – रूण्ड गिरे¸ गज – मुण्ड गिरे¸
कट – कट अवनी पर शुण्ड गिरे।
लड़ते – लड़ते अरि झुण्ड गिरे¸
भू पर हय विकल बितुण्ड गिरे।।3 ।।
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क्षण महाप्रलय की बिजली सी¸
तलवार हाथ की तड़प – तड़प।
हय – गज – रथ – पैदल भगा भगा¸
लेती थी बैरी वीर हड़प।।4 ।।
क्षण पेट फट गया घोड़े का¸
हो गया पतन कर कोड़े का।
भू पर सातंक सवार गिरा¸
क्षण पता न था हय – जोड़े का।।5 ।।
चिंग्घाड़ भगा भय से हाथी¸
लेकर अंकुश पिलवान गिरा।
झटका लग गया¸ फटी झालर¸
हौदा गिर गया¸ निशान गिरा।।6 ।।
कोई नत – मुख बेजान गिरा¸
करवट कोई उत्तान गिरा।
रण – बीच अमित भीषणता से¸
लड़ते – लड़ते बलवान गिरा।।7 ।।
होती थी भीषण मार – काट¸
अतिशय रण से छाया था भय।
था हार – जीत का पता नहीं¸
क्षण इधर विजय क्षण उधर विजय।।8
कोई व्याकुल भर आह रहा¸
कोई था विकल कराह रहा।
लोहू से लथपथ लोथों पर¸
कोई चिल्ला अल्लाह रहा।।9 ।।
धड़ कहीं पड़ा¸ सिर कहीं पड़ा¸
कुछ भी उनकी पहचान नहीं।
शोणित का ऐसा वेग बढ़ा¸
मुरदे बह गये निशान नहीं।।10 ।।
मेवाड़ – केसरी देख रहा¸
केवल रण का न तमाशा था।
वह दौड़ – दौड़ करता था रण¸
वह मान – रक्त का प्यासा था।।11 ।।
चढ़कर चेतक पर घूम – घूम
करता मेना – रखवाली था।
ले महा मृत्यु को साथ – साथ¸
मानो प्रत्यक्ष कपाली था।।12 ।।
रण – बीच चौकड़ी भर – भरकर
चेतक बन गया निराला था।
राणा प्रताप के घोड़े से¸
पड़ गया हवा को पाला था।।13 ।।
गिरता न कभी चेतक – तन पर¸
राणा प्रताप का कोड़ा था।
वह दोड़ रहा अरि – मस्तक पर¸
या आसमान पर घोड़ा था।।14 ।।
जो तनिक हवा से बाग हिली¸
लेकर सवार उड़ जाता था।
राणा की पुतली फिरी नहीं¸
तब तक चेतक मुड़ जाता था।।15 ।।
कौशल दिखलाया चालों में¸
उड़ गया भयानक भालों में।
निभीर्क गया वह ढालों में¸
सरपट दौड़ा करवालों में।।16 ।।
है यहीं रहा¸ अब यहां नहीं¸
वह वहीं रहा है वहां नहीं।
थी जगह न कोई जहां नहीं¸
किस अरि – मस्तक पर कहां नहीं।।17।
बढ़ते नद – सा वह लहर गया¸
वह गया गया फिर ठहर गया।
विकराल ब्रज – मय बादल – सा
अरि की सेना पर घहर गया।।18 ।।
भाला गिर गया¸ गिरा निषंग¸
हय – टापों से खन गया अंग।
वैरी – समाज रह गया दंग
घोड़े का ऐसा देख रंग।।19 ।।
चढ़ चेतक पर तलवार उठा
रखता था भूतल – पानी को।
राणा प्रताप सिर काट – काट
करता था सफल जवानी को।।20 ।।
कलकल बहती थी रण – गंगा
अरि – दल को डूब नहाने को।
तलवार वीर की नाव बनी
चटपट उस पार लगाने को।।21 ।।
वैरी – दल को ललकार गिरी¸
वह नागिन – सी फुफकार गिरी।
था शोर मौत से बचो¸बचो¸
तलवार गिरी¸ तलवार गिरी।।22 ।।
पैदल से हय – दल गज – दल में
छिप – छप करती वह विकल गई!
क्षण कहां गई कुछ¸ पता न फिर¸
देखो चमचम वह निकल गई।।23 ।।
क्षण इधर गई¸ क्षण उधर गई¸
क्षण चढ़ी बाढ़ – सी उतर गई।
था प्रलय¸ चमकती जिधर गई¸
क्षण शोर हो गया किधर गई।।24 ।।
क्या अजब विषैली नागिन थी¸
जिसके डसने में लहर नहीं।
उतरी तन से मिट गये वीर¸
फैला शरीर में जहर नहीं।।25 ।।
थी छुरी कहीं¸ तलवार कहीं¸
वह बरछी – असि खरधार कहीं।
वह आग कहीं अंगार कहीं¸
बिजली थी कहीं कटार कहीं।।26 ।।
लहराती थी सिर काट – काट¸
बल खाती थी भू पाट – पाट।
बिखराती अवयव बाट – बाट
तनती थी लोहू चाट – चाट।।27 ।।
सेना – नायक राणा के भी
रण देख – देखकर चाह भरे।
मेवाड़ – सिपाही लड़ते थे
दूने – तिगुने उत्साह भरे।।28 ।।
क्षण मार दिया कर कोड़े से
रण किया उतर कर घोड़े से।
राणा रण – कौशल दिखा दिया
चढ़ गया उतर कर घोड़े से।।29 ।।
क्षण भीषण हलचल मचा – मचा
राणा – कर की तलवार बढ़ी।
था शोर रक्त पीने को यह
रण – चण्डी जीभ पसार बढ़ी।।30 ।।
वह हाथी – दल पर टूट पड़ा¸
मानो उस पर पवि छूट पड़ा।
कट गई वेग से भू¸ ऐसा
शोणित का नाला फूट पड़ा।।31 ।।
जो साहस कर बढ़ता उसको
केवल कटाक्ष से टोक दिया।
जो वीर बना नभ – बीच फेंक¸
बरछे पर उसको रोक दिया।।32 ।।
क्षण उछल गया अरि घोड़े पर¸
क्षण लड़ा सो गया घोड़े पर।
वैरी – दल से लड़ते – लड़ते
क्षण खड़ा हो गया घोड़े पर।।33 ।।
क्षण भर में गिरते रूण्डों से
मदमस्त गजों के झुण्डों से¸
घोड़ों से विकल वितुण्डों से¸
पट गई भूमि नर – मुण्डों से।।34 ।।
ऐसा रण राणा करता था
पर उसको था संतोष नहीं
क्षण – क्षण आगे बढ़ता था वह
पर कम होता था रोष नहीं।।35 ।।
कहता था लड़ता मान कहां
मैं कर लूं रक्त – स्नान कहां।
जिस पर तय विजय हमारी है
वह मुगलों का अभिमान कहां।।36 ।।
भाला कहता था मान कहां¸
घोड़ा कहता था मान कहां?
राणा की लोहित आंखों से
रव निकल रहा था मान कहां।।37 ।।
लड़ता अकबर सुल्तान कहां¸
वह कुल – कलंक है मान कहां?
राणा कहता था बार – बार
मैं करूं शत्रु – बलिदान कहां? ।। 38 ।।
तब तक प्रताप ने देख लिया
लड़ रहा मान था हाथी पर।
अकबर का चंचल साभिमान
उड़ता निशान था हाथी पर।।39 ।।
वह विजय – मन्त्र था पढ़ा रहा¸
अपने दल को था बढ़ा रहा।
वह भीषण समर – भवानी को
पग – पग पर बलि था चढ़ा रहा।।40।
फिर रक्त देह का उबल उठा
जल उठा क्रोध की ज्वाला से।
घोड़ा से कहा बढ़ो आगे¸
बढ़ चलो कहा निज भाला से।।41 ।।
हय – नस नस में बिजली दौड़ी¸
राणा का घोड़ा लहर उठा।
शत – शत बिजली की आग लिये
वह प्रलय – मेघ – सा घहर उठा।।42 ।।
क्षय अमिट रोग¸ वह राजरोग¸
ज्वर स i न्नपात लकवा था वह।
था शोर बचो घोड़ा – रण से
कहता हय कौन¸ हवा था वह।।43 ।।
तनकर भाला भी बोल उठा
राणा मुझको विश्राम न दे।
बैरी का मुझसे हृदय गोभ
तू मुझे तनिक आराम न दे।।44 ।।
खाकर अरि – मस्तक जीने दे¸
बैरी – उर – माला सीने दे।
मुझको शोणित की प्यास लगी
बढ़ने दे¸ शोणित पीने दे।।45 ।।
मुरदों का ढेर लगा दूं मैं¸
अरि – सिंहासन थहरा दूं मैं।
राणा मुझको आज्ञा दे दे
शोणित सागर लहरा दूं मैं।।46 ।।
रंचक राणा ने देर न की¸
घोड़ा बढ़ आया हाथी पर।
वैरी – दल का सिर काट – काट
राणा चढ़ आया हाथी पर।।47 ।।
गिरि की चोटी पर चढ़कर
किरणों निहारती लाशें¸
जिनमें कुछ तो मुरदे थे¸
कुछ की चलती थी सांसें।।48 ।।
वे देख – देख कर उनको
मुरझाती जाती पल – पल।
होता था स्वर्णिम नभ पर
पक्षी – क्रन्दन का कल – कल।।49 ।।
मुख छिपा लिया सूरज ने
जब रोक न सका रूलाई।
सावन की अन्धी रजनी
वारिद – मिस रोती आई।।50 ।।